विद्यासागर सेवा संघ Vidyasagar Seva Sangh
रविवार, 16 अगस्त 2020
गुरुवार, 27 अगस्त 2015
Sallekhana
One of the intriguing features in Jainism is Sallekhana, fasting until death. It is a slow process, wherein a person gradually decreases his/her intake of food and liquids, resulting in death. It is considered a very sacred process and is undertaken as part of a vow. It is seen as means of liberating oneself from the effects of Karma (effect of action) and the cycle of rebirths. It is also known as Samthara (death-bed) in Shwetambar sect.
A person choosing to undertake Sallekhana must truly understand the principles behind it. He has to undergo a process of purification to overcome all passions and emotions. This process takes a few years, during which the individual gradually withdraws from all mental and physical activities. The quantity of food decreases day by day, which finally gives way to liquids. This reduced intake of food is seen as means of reducing the negative factors and focusing the mind entirely on spiritual matters. During this period the person has to abandon all worldly attachments and relations. He should seek forgiveness from his relatives, acquaintances and friends for his past unpleasant deeds and sins. He should concentrate solely on the soul and spend his time in meditation. In case he has some followers, he may spend his time giving religious discourses. The final approaching death should be accepted with calm mind and patience. He should not wish for a quick death or a death during later time. Death should be accepted as it comes. Any thoughts of seeing the near and dear ones at the final hours should not be entertained.
In case the person undergoing the fast falls ill or loses peace of mind, he should abandon the process of Sallekhana and resume his normal life.
मंगलवार, 25 अगस्त 2015
संथारा आत्महत्या नहीं: डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नया इंडिया. 25 अगस्त 2015. डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राजस्थान उच्च न्यायालय ने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है। उसने अपने फैसले में कह दिया है कि संथारा /सल्लेखना तथा आत्महत्या मेंकोई फर्क नहीं है। संथारा / सल्लेखना जैन-धर्म की ऐसी प्रथा है, जिसके अंतर्गत जैन लोग अनशन करके अपना जीवन-त्याग देते हैं। इसेसमाधि-मरण भी कहा जाता है। अब यदि यह फैसला लागू हो गया तो संथारा करनेवाले हर जैन को वही सजा भुगतनी होगी, जो आत्महत्याकरनेवाले को भुगतनी होती है। अदालत के इस फैसले का विरोध करने के लिए अलग-अलग शहरों में हजारों जैन सड़कों पर उतर आए हैं।
यदि अदालत ने यह फैसला उन लोगों को ध्यान में रखकर किया है, जिन्हें जबर्दस्ती या सामाजिक दबाव में संथारा के लिए बाध्य कियाजाता है तो माना जाएगा कि इस फैसले के पीछे मूल भाव करुणा का है या जीवन के अधिकार का है लेकिन ऐसा एक भी उदाहरण आज तकसुनने या देखने में नहीं आया है। बल्कि इसके विपरीत भारत का जैन समाज सारी दुनिया में इस दृष्टि से बेजोड़ है कि उसके बच्चों को बचपन से ही उपवासों के जरिए आत्म-संयम का पाठ पढ़ाया जाता है। पर्यूषण के दिनों में साल में एक बार तो हर जैन उपवास रखता ही है लेकिन अन्य अवसरों पर जैन लोग एक-एक माह तक खाना तो दूर रहा, पानी भी नहीं पीते।
इस प्रक्रिया के चरमोत्कर्ष का नाम ही संथाराहै। स्वेच्छा और प्रसन्नता से देहत्याग करने को आत्महत्या कहना बिल्कुल अनुचित है। आत्महत्या क्यों की जाती है? अपराध-बोध,अपमान-बोध और अवसाद-बोध के कारण! क्रोध, निराशा, हताशा के कारण! क्या संथारा के भी कारण यही होते हैं? नहीं। संथारा करनेवालाउत्साह, सम्मान, पुण्य-भाव, समर्पण और त्याग से परिपूर्ण होता है।
यदि संथारा आत्महत्या है तो आमरण अनशन क्या है? गांधी, विनोबा,करपात्रीजी और कई शंकराचार्यों को आत्महत्या के लिए गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया? अदालत का यह कहना कि संथारा या समाधि-मरण
जैन-धर्म का मूल सिद्धांत नहीं है, अजीब-सा है। यह कौन तय करेगा? जैनाचार्य करेंगेया अंग्रेजी कानून के अंधानुयायी जज लोग? मूल सिद्धांत अहिंसा है और संथारा तो उसको व्यवहार में लागू करना है। मृत्यु-जैसी सबसेकष्टदायक घटना को सुखदायक बनाने से
बड़ी अहिंसा क्या हो सकती है?
देह-त्याग की यह अद्भुत भारतीय परंपरा भगवान राम, महावीरऔर भीष्म पितामह के ज़माने से चली आ रही
है। अपने चित्त को देहाभिमान से मुक्त करना तो सदेह मोक्ष ही है। सदेह मोक्ष की इस साधनाको खंडित करना किसीभी कानून के बूते की बात नहीं है।
सोमवार, 24 अगस्त 2015
क्या होती है संथारा और सल्लेखना?
जैन साधना का प्राण है सल्लेखना
- मुनिश्री १०८ प्रमाणसागर जी महाराज
सल्लेखना जैन साधना का प्राण है. सल्लेखना के अभाव में जैन साधक की साधना सफल नहीं हो पाती. जिस प्रकार वर्षभर पढ़ाई करने वाला विद्यार्थी यदि ठीक परीक्षा के समय विद्यालय न जाये तो उसकी वर्षभर की पढ़ाई निरर्थक हो जाती है, उसी तरह पूरे जीवनभर साधना करने वाला साधक यदि अंत समय में सल्लेखना /संथारा धारण न कर सके तो उसकी साधना निष्फल हो जाती है.
सल्लेखना का फल बताते हुए जैन शास्त्रों में लिखा गया है कि यदि कोई भी व्यक्ति निर्दोष रीति से सल्लेखना धारण करे तो वह उसी भव में (चरमशरीरी होने पर) मोक्ष को पा सकता है. मध्यम रीति से सल्लेखना करने वाला साधक तीसरे भव में और जघन्य (साधारण) रीति से सल्लेखना करने वाले मुनि अथवा गृहस्थ सात अथवा आठ भव में निश्चयतः मुक्ति को पा लेते हैं. यही कारण है कि प्रत्येक जैन साधक अपने मन में सदैव यही भावना भाता है कि उसके जीवन का अंत सल्लेखना पूर्वक हो, वह सल्लेखना पूर्वक ही जीवन का अंत करना चाहता है. उसकी आन्तरिक भावना यही होती है कि मैं सल्लेखना के साथ ही जीवन की अंतिम श्वास लूँ.
सल्लेखना का अर्थ :
“सल्लेखना” शब्द सत् + लेखन से बना है. जिसमें सत् का अर्थ है अच्छी तरह से, भली प्रकार से, समीचीन प्रकार से एवं “लेखन” का यहाँ अर्थ है कृष करना अथवा क्षीण करना. अपनी काया एवं कषायों को सम्यक प्रकार से कृष करना सल्लेखना कहलाता है. अर्थात् प्रत्येक साधक को अपनी कषायों/विकारों के शमन के साथ शरीर को कृष करना चाहिए. यहाँ शरीर को कृष करने का अर्थ अनावश्यक रूप से सुखाना नहीं है अपितु अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को कम करते हुए शरीर का शोधन करना है . कुल मिलाकर, अपने विकारों के शमन और शरीर के शोधनपूर्वक आत्मजागृति के साथ जीवन की अंतिम श्वास लेना, सल्लेखना कहलाती है.
सल्लेखना क्यों?
जिसने जन्म लिया है उसका मरण भी सुनिश्चित है. तरह तरह के औषध उपचार अथवा मन्त्र तंत्र भी मनुष्य को मरने से बचा नहीं सकते हैं. “जातस्य मरणं ध्रुवं, ध्रुवं जन्म मृतस्य च” जन्म लेने वाले का मरण और मरने वाले का जन्म निश्चित है. इस उक्ति के अनुसार मृत्युकाल सन्निकट आने पर मृत्यु से घबराने के स्थान पर उस जीवन का अनिवार्य/ अटल सत्य मानकार आत्मजागृति के साथ वीरतापूर्वक जीवन को संपन्न करना ही सल्लेखना का उद्देश्य है.
जैन साधना भेद विज्ञान मूलक है यहाँ भेद विज्ञान का अर्थ है ऐसा विज्ञान जो मनुष्य को आत्मा और शरीर के अलग-२ होने के सत्य को उजागर करे. शरीर और आत्मा की भिन्नता के अहसास के साथ अपनी आत्मा का शोधन करना ही जैन साधक का परम लक्ष्य होता है. अंतःकरण में वैराग्य और भेद विज्ञान के साथ किया गया तपानुष्ठान आत्मा के कल्याण का मुख्य कारण है , तपस्या से ही आत्मा में निखार आता है. सल्लेखना भी एक प्रकार की विशिष्ट तपस्या है.
सल्लेखना कब और किसे?
जैन शास्त्रों में कहा गया है कि साधक को अपने शरीर के माध्यम से सतत साधना करते रहना चाहिए, जब तक शरीर साधना के अनुकूल प्रतीत हो शरीर को पर्याप्त पोषण देते रहना चाहिए परन्तु जब शरीर में शिथिलता आने लगे व हमारी साधना में बाधक प्रतीक होने लगे, बुढ़ापे के कारण शरीर अत्यंत क्षीण, जर्जर हो जाए अथवा ऐसा कोई रोग हो जाए जिसका कोई उपचार न हो, उसकी चिकित्सा न की जा सके तो उस घड़ी में शरीर की नश्वरता एवं आत्मा की अमरता को जानकर धर्म ध्यान पूर्वक इस देह का त्याग करना सल्लेखना कहा जाता है.
महान जैन ग्रन्थ ‘रत्नकरंडक श्रावकाचार’ में कहा भी गया है:
“उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च नि:प्रतीकारे
धर्माय तनु विमोचन माहु सल्लेखनामार्या
अर्थात् ऐसा उपसर्ग जिसमें बचने की संभावना न हो, अत्यधिक बुढ़ापा और ऐसा असाध्य रोग हो जाए जिसका कोई इलाज संभव न हो तब धर्म रक्षा के लिए अपने शरीर के त्याग को सल्लेखना कहते हैं. उक्त कथन से यह स्पष्ट है कि हर किसी को या जब कभी भी सल्लेखना करने की अनुमति नहीं है. जब शरीर हमारी साधना में साथ देने योग्य ना हो अथवा उसे सम्भाल पाना सम्भव ना हो तब सल्लेखना ग्रहण की जाती है.
सल्लेखना की विधि:
सल्लेखना का यह अर्थ नहीं है कि एकसाथ सभी प्रकार के भोजन एवं पानी तो त्याग करके बैठ जाना. अपितु सल्लेखना की एक विधि है. इस प्रक्रिया के अनुसार साधक अपनी कषायों को कृष करने के क्रम में अपने मन को शोक, भय, अवसाद, स्नेह, बैर, राग द्वेष और मोह जैसे विकारी भावों का भेद विज्ञान के बल पर शमन करता है . और अपनी साधना के द्वारा अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को कम करता जाता है. वैसे अंत समय में जब हमारे शरीर में शिथिलता आ जाती है, शरीर के अंग काम करना बंद कर देते हैं, व्यक्ति का खाना पीना भी छूट जाता है. साधक अपने शरीर को कृष करने के क्रम में सबसे पहले अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को कम करते हुए क्रमशः स्थूल आहार जैसे दाल-भात, रोटी आदि का त्याग करता है, उसके बाद केवल पेय पदार्थों का सेवन करता है. फिर धीरे-धीरे अन्य पेय पदार्थों को कम करते हुए मात्र जल लेता है, शक्ति अनुसार बीच बीच में उपवास भी करता है और अत्यंत सहज और शांत भावों से इस संसार से विदा लेता है.
सल्लेखना आत्महत्या नहीं है:
देह विसर्जन की इतनी तर्कसंगत एवं वैज्ञानिक पद्धति को आत्महत्या कहना अथवा इच्छामृत्यु या सतीप्रथा निरुपित करना बड़ा आश्चर्यजनक है यदि जैन धर्म में प्रतिपादित ‘सल्लेखना’ की मूल अवधारणा को ठीक ढंग से समझा गया होता तो ऐसा कभी नहीं होता. जैन धर्म में आत्महत्या को घोर पाप निरुपित करते हुए कहा गया है ‘आत्मघातं महत्पापं’.हत्या ‘स्व’ की हो अथवा ‘पर’ की हो हत्या तो हत्या है. जैन धर्म में ऐसी हत्या को कोई स्थान नहीं है. इस साधना अथवा सल्लेखना के लिए आत्महत्या जैसे शब्द का प्रयोग तो तब किया जा सकता है जब यह मरने के लिए की जाए. जबकि सल्लेखना मरने के लिए नहीं जीवन-मरण से ऊपर उठने के लिए की जाती है. सल्लेखना के पाँच अतिचारों से यह बात एकदम स्पष्ट हो जाती है:
“जीवितमरणाशंसा शंसामित्रनुराग सुखानुबंध निदानानि”
उक्त सूत्र में “ जीवितआशंसा” अर्थात् जीने की इच्छा तथा “मरणाशंसा” अर्थात् मरने की इच्छा को सल्लेखना का अतिचार/दोष कहा गया है. ऐसी सल्लेखना की पावन प्रक्रिया को आत्महत्या कहना कितना आश्चर्यजनक है. वस्तुतः सल्लेखना आत्महत्या नहीं आत्मलीनता है, जिसमें साधक आत्मा की विशुद्धि एवं शरीर की शुद्धि के साथ अपनी अंतिम साँस लेता है.
सल्लेखना एवं आत्महत्या दोनों को कभी एक नहीं कहा जा सकता है. दोनों की मानसिकता में महान अंतर है:
सल्लेखना
|
आत्महत्या
|
सल्लेखना धर्म है
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आत्महत्या अपराध है, पाप है
|
समता से प्रेरित होकर ली जाती है
|
कषाय से प्रेरित होकर ली जाती है
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परम प्रीति और उत्साहपूर्वक
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तीव्र मानसिक असंतुलन, घोर हताशा और अवसादग्रस्त स्थिति में
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लक्ष्य जीवन मरण से ऊपर उठाना है
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लक्ष्य केवल मरना है
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आत्मा की अमरता , शरीर की नश्वरता को समझकर आत्मोद्धार के लिए
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देह विनाश को अपना नाश मानकर की जाती है
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जीवन के अंतिम समय में
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जीवन में कभी भी की जा सकती है
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सल्लेखना मोक्ष का कारण बनती है
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आत्महत्या नरक का द्वार खोलती है
|
सल्लेखना को सतीप्रथा से जोड़ना तो और भी हास्यास्पद है क्योंकि सतीप्रथा (जो क़ानूनी रूप से प्रतिबंधित है) एक कुप्रथा थी जबकि सल्लेखना एक व्रत है. सल्लेखना जन्म-मरण से ऊपर उठने के लिए की जाती है जबकि सतीप्रथा में स्त्री को पति की मृत देह को अपनी गोद में लेकर चिता पर जलना पड़ता है. इसके पीछे एक ही धारणा है उस स्त्री को अगले जन्म में वही व्यक्ति पति के रूप में प्राप्त हो. इस प्रकार पति के राग और वासना की चाह में अपने जीवन की आहुति देना जैनधर्म में सर्वथा अस्वीकृत है इसलिए सतीप्रथा को सल्लेखना से जोड़ना सर्वथा अनुचित है.
जैन समाज इतना उद्वेलित क्यों :
जिसके प्राणों पर संकट आ जाएँ, वह उद्वेलित नहीं होगा तो क्या होगा? जिस सल्लेखना के कारण हमारी साधना सफल होती है जिसको धारण करने की भावना हर जैन साधक जीवनभर रखता है यदि उसपर ही प्रतिबन्ध की बात आ जाए तो समाज उद्वेलित होगा ही.
वस्तुतः सल्लेखना पर रोक हमारे धर्म पर रोक है. हमारी साधना पर रोक है. यह जैनधर्म और संस्कृति पर कुठाराघात है. जैन समाज का उद्वेलित होना स्वाभाविक है जिसे इस प्रतिबन्ध को हटाकर ही शांत किया जा सकता है .
अंत में, मैं शासन-प्रशासन, विधिवेत्ताओं एवं न्यायविदों से यही कहना चाहूँगा किसी भी धर्म से संबंधित किसी भी साधना पद्धति अथवा परम्परा से सम्बद्ध कोई भी निर्णय उसकी मूल भावना को समझकर ही लिया जाए. अनादिकाल से चली आ रही सल्लेखना की पुरातन परंपरा को यथावत रखा जाए.
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