सोमवार, 14 नवंबर 2011

मुंशी प्रेमचंद और उनकी बाल कहानियाँ

भूमिका
प्रेमचंद हिंदी के उन महान् कथाकारों में थे, जिन्होंने बड़ों के लिए विपुल कथा-संसार की रचना के साथ-साथ विशेष रूप से बच्चों के लिए भी लिखा। उस समय एक ओर स्वतन्त्रता संग्राम अपने पूरे जोरों पर था और देश के बच्चे-बच्चे में राष्ट्रीयता के भाव जगाए जा रहे थे। दूसरी ओर अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजी संस्कृति का इतना प्रभाव फैल गया था कि भारतीय समाज अजीब स्थिति में फंसा हुआ था। एक ओर स्वदेशी की भावना, हमारे नैतिक मूल्यों और परम्परा से चली आ रही सभ्यता और संस्कृति की रक्षा का प्रश्न था, तो दूसरी तरफ विश्व में हो रही विज्ञान की प्रगति नयी-नयी खोजों के प्रति भारतीयों में जागृति आ रही थी।

पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव का विरोध और स्वदेशी की भावना स्वतंत्रता आंदोलन के नारे बन चुके थे। महात्मा गांधी का प्रभाव, खादी, विदेशी कपड़ों की होलीये सभी उन दिनों चर्चा के विषय थे। भारतीय और पाश्चात्य मूल्यों का संघर्ष, भारतीय समाज के लिए विचित्र समस्या बन गया था। बच्चों के लिए जो पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही थीं जैसे बालसखा’, ‘वानरआदि, वे सभी बीच का रास्ता निकालकर, बच्चों को ऐसी रचनाएं पढ़ने को दे रही थीं, जो बच्चों में बुनियादी मूल्यों की रक्षा करते हुए उन्हें अपने समय के प्रति जागरुक और जानकार भी बना रही थीं। उस समय हिंदी के अनेक वरिष्ठ कवि और लेखक बच्चों के लिए भी रचनाएं लिख रहे थे और उन्हें राष्ट्रा-भावना, स्वदेशी और भारतीय नैतिक मूल्यों आदि के संदेश के साथ विज्ञान और नयी दुनिया से भी परिचित करा रहे थे। प्रेमचंद ने भी उन्हीं दिनों जो रचनाएं बच्चों के लिए लिखीं वे उस समय के बच्चों में नैतिकता, साहस, स्वतंत्र-विचार, अभिव्यक्ति और आत्मरक्षा की भावना जगाने वाली सिद्ध हुईं।

प्रेमचंद्र ने बच्चों के लिए विशेष रूप से जो कहानियां लिखीं, उन पर चर्चा करने से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि बच्चों के प्रति प्रेमचंद उस समय क्या सोचते थे ? निश्चित ही उनकी वही सोच, उनकी बाल कहानियों में झलकती है। प्रेमचंद ने सन् 1930 में हंसपत्रिका का संपादकीय—‘‘बच्चों को स्वाधीन बनाओशीर्षक से लिखा था। इस लेख में उन्होंने बच्चों के प्रति अपने समकालीन विचार लिखे हैं। उन्होंने लिखा—‘बालक को प्रधानतः ऐसी शिक्षा देनी चाहिए कि वह जीवन में अपनी रक्षा आप कर सके। बालकों में इतना विवेक होना चाहिए कि वे हर एक काम के गुण-दोष को भीतर से देखें।प्रेमचंद बच्चों को परिवार में आज्ञाकारी और अनुशासित तो देखना चाहते थे, किंतु वह इसे नहीं पसंद करते थे कि माता-पिता डिक्टेटर की तरह बच्चे का रिमोट कंट्रोल अपने हाथ में रखें। उनका मानना था कि माता-पिता के रिमोट कंट्रोल से संचालित बच्चों का न विकास होता है और न वे जीवन में सफल हो पाते हैं। बच्चों के मौलिक विचारों को सम्मान मिलना चाहिए और उन्हें जीवन में कुछ करने की छूट मिलनी चाहिए।

प्रेमचंद ने अपनी इसी विचार-भूमि पर बाल कहानियों की रचना की। उनकी एक पुस्तक जंगल की कहानियांमें वे कहानियां हैं जो उन्होंने विशेष रूप से बच्चों के लिए लिखी थीं। उनमें से तीन कहानियां इस संकलन में ली गयी हैं। एक और किंतु मार्मिक कहानी कुत्ते की कहानीभी बच्चों के लिए ही लिखी गयी थी। पाठ्य-पुस्तकों तथा अन्यत्र, इन कहानियों को बचपन में पढ़कर कई पीढ़ियां बड़ी हुई हैं और उनकी छाप मन पर आज भी है। यह सत्य स्वीकार करना होगा कि प्रेमचंद को अधिकांश बाल पाठकों ने अपनी पाठ्य-पुस्तकों में उनकी कहानियां पढ़कर ही जाना और याद रखा।

बाद में पठन-रुचि वालों ने उनका साहित्य बड़े होकर पढ़ा। प्रेमचंद ने बच्चों की कई पीढ़ियों में मानवीय संवेदनाओं के साथ मानवता, न्याय-अन्याय, नैतिकता और सामाजिक आचार-व्यवहार से जुड़े मूल्यों और सामाजिक रिश्तों की महत्ता का संदेश पाठकों को दिया। साथ ही दो बैलों की कथाऔर कुत्ते की कहानीवे कहानियां हैं जिनमें पशुओं को वाणी देकर उन्हें मानवीय-पात्र के रूप में प्रस्तुत करके, बाल पाठकों के मन में प्राणि जगत के प्रति संवेदना सहानुभूति जगाने का प्रयास किया। कुछ कहानियों जैसे गुल्ली-डंडा’, ‘चोरी’, ‘कजाकी’, ‘नादान दोस्तआदि में बच्चों की स्वाभाविक क्रियाएं और खेल तथा आदतों के अलावा बालमन की सहज अभिव्यक्ति है। बाल साहित्य वही है जिसे बच्चे पढ़ें, पसंद करें और अपना बना लें। इसमें लेखक का छोटा या बड़ा होना वे नहीं देखतेन ही यह कि वे कहानियां किस आयु वर्ग के पाठकों के लिए लिखी गयी हैं। विश्व की कई कालजयी कृतियां, जिन्हें उनके लेखकों ने बड़ी आयु के पाठकों के लिए लिखा था, आज विश्व बाल साहित्य की कालजयी (क्लासिक) कृतियां बन गयी हैं।

यही स्थिति प्रेमचंद की उन चुनिंदा कहानियों की है जिन्हें बच्चों की कई पीढ़ियां बरसों-बरस पढ़कर बड़ी हुई हैं और वे आज भी लोगों की स्मृतियों में बनी हुई हैं। इसलिए वे कहानियां भारतीय बाल साहित्य की कालजयी कृतियां बन गयी हैं और यही उन्हें इस संकलन में लेने का औचित्य है।

प्रेमचंद की कहानियों की भाषा-शैली बड़ी सरल और बोधगम्य थी। उन्हें हिंदी का साधारण पाठक भी पढ़कर रस लेता रहा है। फिर भी जहां कहीं यह लगा कि शायद आज के बाल पाठक कुछ शब्दों का अर्थ न समझ सकें, तो उनका अर्थ फुटनोट में दे दिया गया है।

मिट्ठू

बंदरों के तमाशे तो तुमने बहुत देखे होंगे। मदारी के इशारों पर बंदर कैसी-कैसी नकलें करता है, उसकी शरारतें भी तुमने देखी होंगी। तुमने उसे घरों से कपड़े उठाकर भागते देखा होगा। पर आज हम तुम्हें एक ऐसा हाल सुनाते हैं, जिससे मालूम होगा कि बंदर लड़कों से भी दोस्ती कर सकता है।
कुछ दिन हुए लखनऊ में एक सरकस-कंपनी आयी थी। उसके पास शेर, भालू, चीता और कई तरह के और भी जानवर थे। इनके सिवा एक बंदर मिट्ठू भी था। लड़कों के झुंड-के-झुंड रोज इन जानवरों को देखने आया करते थे। मिट्ठू ही उन्हें सबसे अच्छा लगता। उन्हीं लड़कों में गोपाल भी था। वह रोज आता और मिट्ठू के पास घंटों चुपचाप बैठा रहता। उसे शेर, भालू, चीते आदि से कोई प्रेम न था। वह मिट्ठू के लिए घर से चने, मटर, केले लाता और खिलाता। मिट्ठू भी उससे इतना हिलमिल गया था कि बगैर उसके खिलाए कुछ न खाता। इस तरह दोनों में बड़ी दोस्ती हो गयी।

एक दिन गोपाल ने सुना कि सरकस कंपनी वहां से दूसरे शहर में जा रही है। यह सुनकर उसे बड़ा रंज हुआ। वह रोता हुआ अपनी मां के पास आया और बोला, ‘‘अम्मा, मुझे एक अठन्नी दो, मैं जाकर मिट्ठू को खरीद लाऊं। वह न जाने कहां चला जायेगा ! फिर मैं उसे कैसे देखूंगा ? वह भी मुझे न देखेगा तो रोयेगा।’’
मां ने समझाया, ‘‘बेटा बंदर किसी को प्यार नहीं करता। वह तो बड़ा शैतान होता है। यहां आकर सबको काटेगा, मुफ्त में उलाहने सुनने पड़ेंगे।’’
लेकिन लड़के पर मां के समझाने का कोई असर न हुआ। वह रोने लगा। आखिर मां ने मजबूर होकर उसे एक अठन्नी निकालकर दे दी।
अठन्नी पाकर गोपाल मारे खुशी के फूल उठा। उसने अठन्नी को मिट्टी से मलकर खूब चमकाया, फिर मिट्ठू को खरीदने चला।
लेकिन मिट्ठू वहां दिखाई न दिया। गोपाल का दिल भर आयामिट्ठू कहीं भाग तो नहीं गया ? मालिक को अठन्नी दिखाकर गोपाल बोला, ‘‘क्यों साहब, मिट्टू को मेरे हाथ बेचेंगे ?’’

मालिक रोज उसे मिट्ठू से खेलते और खिलाते देखता था। हंसकर बोला, ‘‘अबकी बार आऊंगा तो मिट्ठू को तुम्हें दे दूंगा।’’
गोपाल निराश होकर चला आया और मिट्ठू को इधर-उधर ढूँढ़ने लगा। वह उसे ढूंढ़ने में इतना मगन था कि उसे किसी बात की खबर न थी। उसे बिलकुल न मालूम हुआ कि वह चीते के कठघरे के पास आ गया था। चीता भीतर चुपचाप लेटा था। गोपाल को कठघरे के पास देखकर उसने पंजा बाहर निकाला और उसे पकड़ने की कोशिश करने लगा। गोपाल तो दूसरी तरफ ताक रहा था। उसे क्या खबर थी कि चीते का पंजा उसके हाथ के पास पहुंच गया है ! करीब था कि चीता उसका हाथ पकड़कर खींच ले कि मिट्ठू न मालूम कहां से आकर उसके पंजे पर कूद पड़ा और पंजे को दांतों से काटने लगा। चीते ने दूसरा पंजा निकाला और उसे ऐसा घायल कर दिया कि वह वहीं गिर पड़ा और जोर-जोर से चीखने लगा।

मिट्ठू की यह हालत देखकर गोपाल भी रोने लगा। दोनों का रोना सुनकर लोग दौड़े, पर देखा कि मिट्ठू बेहोश पड़ा है और गोपाल रो रहा है। मिट्ठू का घाव तुरंत धोया गया और मरहम लगाया गया। थोड़ी देर में उसे होश आ गया। वह गोपाल की ओर प्यार की आंखों से देखने लगा, जैसे कह रहा हो कि अब क्यों रोते हो ? मैं तो अच्छा हो गया !
कई दिन मिट्ठू की मरहम-पट्टी होती रही और आखिर वह बिल्कुल अच्छा हो गया। गोपाल अब रोज आता और उसे रोटियां खिलाता।
आखिर कंपनी के चलने का दिन आया। गोपाल बहुत रंजीदा1 था। वह मिट्ठू के कठघरे के पास खड़ा आंसू-भरी आंखों से देख रहा था कि मालिक ने आकर कहा, ‘‘अगर तुम मिट्ठू को पा जाओ तो उसका क्या करोगे ?’’
गोपाल ने कहा, ‘‘मैं उसे अपने साथ ले जाऊंगा, उसके साथ-साथ खेलूंगा, उसे अपनी थाली में खिलाऊंगा, और क्या !’’
मालिक ने कहा, ‘‘अच्छी बात है, मैं बिना तुमसे अठन्नी लिए ही इसे तुम्हारे हाथ बेचता हूं।’’
गोपाल को जैसे कोई राज2 मिल गया। उसने मिट्ठू को गोद में उठा लिया, पर मिट्ठू नीचे कूद पड़ा और उसके पीछे-पीछे चलने लगा। दोनों खेलते-कूदते घर पहुंच गये।
----------------
पागल हाथी
मोती राजा साहब की खास सवारी का हाथी। यों तो वह बहुत सीधा और समझदार था, पर कभी-कभी उसका मिजाज गर्म हो जाता था और वह आपे में न रहता था। उस हालत में उसे किसी बात की सुधि न रहती थी, महावत का दबाव भी न मानता था। एक बार इसी पागलपन में उसने अपने महावत को मार डाला। राजा साहब ने वह खबर सुनी तो उन्हें बहुत क्रोध आया। मोती की पदवी छिन गयी। राजा साहब की सवारी से निकाल दिया गया। कुलियों की तरह उसे लकड़ियां ढोनी पड़तीं, पत्थर लादने पड़ते और शाम को वह पीपल के नीचे मोटी जंजीरों से बांध दिया जाता। रातिब1 बंद हो गया। उसके सामने सूखी टहनियां डाल दी जाती थीं और उन्हीं को चबाकर वह भूख की आग बुझाता। जब वह अपनी इस दशा को अपनी पहली दशा से मिलाता तो वह बहुत चंचल हो जाता। वह सोचता, कहां मैं राजा का सबसे प्यारा हाथी था और कहां आज मामूली मजदूर हूं। यह सोचकर जोर-जोर से चिंघाड़ता और उछलता। आखिर एक दिन उसे इतना जोश आया कि उसने लोहे की जंजीरें तोड़ डालीं और जंगल की तरफ भागा।

थोड़ी ही दूर पर एक नदी थी। मोती पहले उस नदी में जाकर खूब नहाया। तब वहां से जंगल की ओर चला। इधर राजा साहब के आदमी उसे पकड़ने के लिए दौड़े, मगर मारे डर के कोई उसके पास जा न सका। जंगल का जानवर जंगल ही में चला गया।
जंगल में पहुंचकर अपने साथियों को ढूंढ़ने लगा। वह कुछ दूर और आगे बढ़ा तो हाथियों ने जब उसके गले में रस्सी और पांव में टूटी जंजीर देखी तो उससे मुंह फेर लिया। उसकी बात तक न पूछी। उनका शायद मतलब था कि तुम गुलाम तो थे ही, अब नमकहराम गुलाम हो, तुम्हारी जगह इस जंगल में नहीं है। जब तक वे आंखों से ओझल न हो गये, मोती वहीं खड़ा ताकता रहा। फिर न जाने क्या सोचकर वहां से भागता हुआ महल की ओर चला।
वह रास्ते ही में था कि उसने देखा कि राजा साहब शिकारियों के साथ घोड़े पर चले आ रहे हैं। वह फौरन एक बड़ी चट्टान की आड़ में छिप गया। धूप तेज थी, राजा साहब जरा दम लेने को घोड़े़ से उतरे। अचानक मोती आड़ से निकल पड़ा और गरजता हुआ राजा साहब की ओर दौड़ा। राजा साहब घबराकर भागे और एक छोटी झोंपड़ी में घुस गये। जरा देर बाद मोती भी पहुंचा। उसने राजा साहब को अंदर घुसते देख लिया था। पहले तो उसने अपनी सूंड़ से ऊपर का छप्पर गिरा दिया, फिर उसे पैरों से रौंदकर चूर-चूर कर डाला।

भीतर राजा साहब का मारे डर के बुरा हाल था। जान बचने की कोई आशा न थी।
आखिर कुछ न सूझी तो वह जान पर खेलकर पीछे दीवार पर चढ़ गये, और दूसरी तरफ कूद कर भाग निकले। मोती द्वार पर खड़ा छप्पर रौंद रहा था और सोच रहा था कि दीवार कैसे गिराऊं ? आखिर उसने धक्का देकर दीवार गिरा दी। मिट्टी की दीवार पागल हाथी का धक्का क्या सहती ? मगर जब राजा साहब भीतर न मिले तो उसने बाकी दीवारें भी गिरा दीं और जंगल की तरफ चला गया।

घर लौटकर राजा साहब ने ढिंढोरा पिटवा दिया कि जो आदमी मोती को जीता पकड़कर लायेगा, उसे एक हजार रुपया इनाम दिया जायेगा। कई आदमी इनाम के लालच में उसे पकड़ने के लिए जंगल गये। मगर उनमें से एक भी न लौटा।
मोती के महावत के एक लड़का था। उसका नाम था मुरली। अभी वह कुल आठ-नौ बरस का था, इसलिए राजा साहब दया करके उसे और उसकी मां को खाने-पहनने के लिए कुछ खर्च दिया करते थे। मुरली था तो बालक पर हिम्मत का धनी था, कमर बांधकर मोती को पकड़ लाने के लिए तैयार हो गया। मगर मां ने बहुतेरा समझाया, और लोगों ने भी मना किया, मगर उसने किसी की एक न सुनी और जंगल की ओर चल दिया।
जंगल में गौर से इधर-उधर देखने लगा। आखिर उसने देखा कि मोती सिर झुकाये उसी पेड़ की ओर चला आ रहा है। उसकी चाल से ऐसा मालूम होता था कि उसका मिजाज ठंडा हो गया है।

ज्यों ही मोती उस पेड़ के नीचे आया, उसने पेड़ के ऊपर से पुचकारा ‘‘मोती।’’
मोती इस आवाज को पहचानता था। वहीं रुक गया और सिर उठाकर ऊपर की ओर देखने लगा। मुरली को देखकर पहचान गया। यह वही मुरली था, जिसे वह अपनी सूंड़ से उठाकर अपने मस्तक पर बिठा लेता था ! ‘‘मैंने ही इसके बाप को मार डाला है,’’ यह सोचकर उसे बालक पर दया आयी। खुश होकर सूंड़ हिलाने लगा।
मुरली उसके मन के भाव को पहचान गया। वह पेड़ से नीचे उतरा और उसकी सूंड़ को थपकियां देने लगा। फिर उसे बैठने का इशारा किया। मोती बैठा नहीं, मुरली को अपनी सूंड़ से उठाकर पहले ही की तरह अपने मस्तक पर बिठा लिया और राजमहल की ओर चला।

मुरली जब मोती को लिए हुए राजमहल के द्वार पर पहुंचा तो सबने दांतों उंगली दबाई। फिर भी किसी की हिम्मत न होती थी कि मोती के पास जाये। मुरली ने चिल्लाकर कहा, ‘‘डरो मत, मोती बिल्कुल सीधा हो गया है, अब वह किसी से न बोलेगा।’’ राजा साहब भी डरते-डरते मोती के सामने आये। उन्हें कितना अचंभा हुआ कि वही पागल मोती अब गाय की तरह सीधा हो गया है।
उन्होंने मुरली को एक हजार रुपया इनाम तो दिया ही, उसे अपना खास महावत बना लिया, और मोती फिर राजा साहब का सबसे प्यारा हाथी बन गया।

साभार: http://www.pustak.org/