सोमवार, 14 नवंबर 2011

मुंशी प्रेमचंद और उनकी बाल कहानियाँ

भूमिका
प्रेमचंद हिंदी के उन महान् कथाकारों में थे, जिन्होंने बड़ों के लिए विपुल कथा-संसार की रचना के साथ-साथ विशेष रूप से बच्चों के लिए भी लिखा। उस समय एक ओर स्वतन्त्रता संग्राम अपने पूरे जोरों पर था और देश के बच्चे-बच्चे में राष्ट्रीयता के भाव जगाए जा रहे थे। दूसरी ओर अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजी संस्कृति का इतना प्रभाव फैल गया था कि भारतीय समाज अजीब स्थिति में फंसा हुआ था। एक ओर स्वदेशी की भावना, हमारे नैतिक मूल्यों और परम्परा से चली आ रही सभ्यता और संस्कृति की रक्षा का प्रश्न था, तो दूसरी तरफ विश्व में हो रही विज्ञान की प्रगति नयी-नयी खोजों के प्रति भारतीयों में जागृति आ रही थी।

पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव का विरोध और स्वदेशी की भावना स्वतंत्रता आंदोलन के नारे बन चुके थे। महात्मा गांधी का प्रभाव, खादी, विदेशी कपड़ों की होलीये सभी उन दिनों चर्चा के विषय थे। भारतीय और पाश्चात्य मूल्यों का संघर्ष, भारतीय समाज के लिए विचित्र समस्या बन गया था। बच्चों के लिए जो पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही थीं जैसे बालसखा’, ‘वानरआदि, वे सभी बीच का रास्ता निकालकर, बच्चों को ऐसी रचनाएं पढ़ने को दे रही थीं, जो बच्चों में बुनियादी मूल्यों की रक्षा करते हुए उन्हें अपने समय के प्रति जागरुक और जानकार भी बना रही थीं। उस समय हिंदी के अनेक वरिष्ठ कवि और लेखक बच्चों के लिए भी रचनाएं लिख रहे थे और उन्हें राष्ट्रा-भावना, स्वदेशी और भारतीय नैतिक मूल्यों आदि के संदेश के साथ विज्ञान और नयी दुनिया से भी परिचित करा रहे थे। प्रेमचंद ने भी उन्हीं दिनों जो रचनाएं बच्चों के लिए लिखीं वे उस समय के बच्चों में नैतिकता, साहस, स्वतंत्र-विचार, अभिव्यक्ति और आत्मरक्षा की भावना जगाने वाली सिद्ध हुईं।

प्रेमचंद्र ने बच्चों के लिए विशेष रूप से जो कहानियां लिखीं, उन पर चर्चा करने से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि बच्चों के प्रति प्रेमचंद उस समय क्या सोचते थे ? निश्चित ही उनकी वही सोच, उनकी बाल कहानियों में झलकती है। प्रेमचंद ने सन् 1930 में हंसपत्रिका का संपादकीय—‘‘बच्चों को स्वाधीन बनाओशीर्षक से लिखा था। इस लेख में उन्होंने बच्चों के प्रति अपने समकालीन विचार लिखे हैं। उन्होंने लिखा—‘बालक को प्रधानतः ऐसी शिक्षा देनी चाहिए कि वह जीवन में अपनी रक्षा आप कर सके। बालकों में इतना विवेक होना चाहिए कि वे हर एक काम के गुण-दोष को भीतर से देखें।प्रेमचंद बच्चों को परिवार में आज्ञाकारी और अनुशासित तो देखना चाहते थे, किंतु वह इसे नहीं पसंद करते थे कि माता-पिता डिक्टेटर की तरह बच्चे का रिमोट कंट्रोल अपने हाथ में रखें। उनका मानना था कि माता-पिता के रिमोट कंट्रोल से संचालित बच्चों का न विकास होता है और न वे जीवन में सफल हो पाते हैं। बच्चों के मौलिक विचारों को सम्मान मिलना चाहिए और उन्हें जीवन में कुछ करने की छूट मिलनी चाहिए।

प्रेमचंद ने अपनी इसी विचार-भूमि पर बाल कहानियों की रचना की। उनकी एक पुस्तक जंगल की कहानियांमें वे कहानियां हैं जो उन्होंने विशेष रूप से बच्चों के लिए लिखी थीं। उनमें से तीन कहानियां इस संकलन में ली गयी हैं। एक और किंतु मार्मिक कहानी कुत्ते की कहानीभी बच्चों के लिए ही लिखी गयी थी। पाठ्य-पुस्तकों तथा अन्यत्र, इन कहानियों को बचपन में पढ़कर कई पीढ़ियां बड़ी हुई हैं और उनकी छाप मन पर आज भी है। यह सत्य स्वीकार करना होगा कि प्रेमचंद को अधिकांश बाल पाठकों ने अपनी पाठ्य-पुस्तकों में उनकी कहानियां पढ़कर ही जाना और याद रखा।

बाद में पठन-रुचि वालों ने उनका साहित्य बड़े होकर पढ़ा। प्रेमचंद ने बच्चों की कई पीढ़ियों में मानवीय संवेदनाओं के साथ मानवता, न्याय-अन्याय, नैतिकता और सामाजिक आचार-व्यवहार से जुड़े मूल्यों और सामाजिक रिश्तों की महत्ता का संदेश पाठकों को दिया। साथ ही दो बैलों की कथाऔर कुत्ते की कहानीवे कहानियां हैं जिनमें पशुओं को वाणी देकर उन्हें मानवीय-पात्र के रूप में प्रस्तुत करके, बाल पाठकों के मन में प्राणि जगत के प्रति संवेदना सहानुभूति जगाने का प्रयास किया। कुछ कहानियों जैसे गुल्ली-डंडा’, ‘चोरी’, ‘कजाकी’, ‘नादान दोस्तआदि में बच्चों की स्वाभाविक क्रियाएं और खेल तथा आदतों के अलावा बालमन की सहज अभिव्यक्ति है। बाल साहित्य वही है जिसे बच्चे पढ़ें, पसंद करें और अपना बना लें। इसमें लेखक का छोटा या बड़ा होना वे नहीं देखतेन ही यह कि वे कहानियां किस आयु वर्ग के पाठकों के लिए लिखी गयी हैं। विश्व की कई कालजयी कृतियां, जिन्हें उनके लेखकों ने बड़ी आयु के पाठकों के लिए लिखा था, आज विश्व बाल साहित्य की कालजयी (क्लासिक) कृतियां बन गयी हैं।

यही स्थिति प्रेमचंद की उन चुनिंदा कहानियों की है जिन्हें बच्चों की कई पीढ़ियां बरसों-बरस पढ़कर बड़ी हुई हैं और वे आज भी लोगों की स्मृतियों में बनी हुई हैं। इसलिए वे कहानियां भारतीय बाल साहित्य की कालजयी कृतियां बन गयी हैं और यही उन्हें इस संकलन में लेने का औचित्य है।

प्रेमचंद की कहानियों की भाषा-शैली बड़ी सरल और बोधगम्य थी। उन्हें हिंदी का साधारण पाठक भी पढ़कर रस लेता रहा है। फिर भी जहां कहीं यह लगा कि शायद आज के बाल पाठक कुछ शब्दों का अर्थ न समझ सकें, तो उनका अर्थ फुटनोट में दे दिया गया है।

मिट्ठू

बंदरों के तमाशे तो तुमने बहुत देखे होंगे। मदारी के इशारों पर बंदर कैसी-कैसी नकलें करता है, उसकी शरारतें भी तुमने देखी होंगी। तुमने उसे घरों से कपड़े उठाकर भागते देखा होगा। पर आज हम तुम्हें एक ऐसा हाल सुनाते हैं, जिससे मालूम होगा कि बंदर लड़कों से भी दोस्ती कर सकता है।
कुछ दिन हुए लखनऊ में एक सरकस-कंपनी आयी थी। उसके पास शेर, भालू, चीता और कई तरह के और भी जानवर थे। इनके सिवा एक बंदर मिट्ठू भी था। लड़कों के झुंड-के-झुंड रोज इन जानवरों को देखने आया करते थे। मिट्ठू ही उन्हें सबसे अच्छा लगता। उन्हीं लड़कों में गोपाल भी था। वह रोज आता और मिट्ठू के पास घंटों चुपचाप बैठा रहता। उसे शेर, भालू, चीते आदि से कोई प्रेम न था। वह मिट्ठू के लिए घर से चने, मटर, केले लाता और खिलाता। मिट्ठू भी उससे इतना हिलमिल गया था कि बगैर उसके खिलाए कुछ न खाता। इस तरह दोनों में बड़ी दोस्ती हो गयी।

एक दिन गोपाल ने सुना कि सरकस कंपनी वहां से दूसरे शहर में जा रही है। यह सुनकर उसे बड़ा रंज हुआ। वह रोता हुआ अपनी मां के पास आया और बोला, ‘‘अम्मा, मुझे एक अठन्नी दो, मैं जाकर मिट्ठू को खरीद लाऊं। वह न जाने कहां चला जायेगा ! फिर मैं उसे कैसे देखूंगा ? वह भी मुझे न देखेगा तो रोयेगा।’’
मां ने समझाया, ‘‘बेटा बंदर किसी को प्यार नहीं करता। वह तो बड़ा शैतान होता है। यहां आकर सबको काटेगा, मुफ्त में उलाहने सुनने पड़ेंगे।’’
लेकिन लड़के पर मां के समझाने का कोई असर न हुआ। वह रोने लगा। आखिर मां ने मजबूर होकर उसे एक अठन्नी निकालकर दे दी।
अठन्नी पाकर गोपाल मारे खुशी के फूल उठा। उसने अठन्नी को मिट्टी से मलकर खूब चमकाया, फिर मिट्ठू को खरीदने चला।
लेकिन मिट्ठू वहां दिखाई न दिया। गोपाल का दिल भर आयामिट्ठू कहीं भाग तो नहीं गया ? मालिक को अठन्नी दिखाकर गोपाल बोला, ‘‘क्यों साहब, मिट्टू को मेरे हाथ बेचेंगे ?’’

मालिक रोज उसे मिट्ठू से खेलते और खिलाते देखता था। हंसकर बोला, ‘‘अबकी बार आऊंगा तो मिट्ठू को तुम्हें दे दूंगा।’’
गोपाल निराश होकर चला आया और मिट्ठू को इधर-उधर ढूँढ़ने लगा। वह उसे ढूंढ़ने में इतना मगन था कि उसे किसी बात की खबर न थी। उसे बिलकुल न मालूम हुआ कि वह चीते के कठघरे के पास आ गया था। चीता भीतर चुपचाप लेटा था। गोपाल को कठघरे के पास देखकर उसने पंजा बाहर निकाला और उसे पकड़ने की कोशिश करने लगा। गोपाल तो दूसरी तरफ ताक रहा था। उसे क्या खबर थी कि चीते का पंजा उसके हाथ के पास पहुंच गया है ! करीब था कि चीता उसका हाथ पकड़कर खींच ले कि मिट्ठू न मालूम कहां से आकर उसके पंजे पर कूद पड़ा और पंजे को दांतों से काटने लगा। चीते ने दूसरा पंजा निकाला और उसे ऐसा घायल कर दिया कि वह वहीं गिर पड़ा और जोर-जोर से चीखने लगा।

मिट्ठू की यह हालत देखकर गोपाल भी रोने लगा। दोनों का रोना सुनकर लोग दौड़े, पर देखा कि मिट्ठू बेहोश पड़ा है और गोपाल रो रहा है। मिट्ठू का घाव तुरंत धोया गया और मरहम लगाया गया। थोड़ी देर में उसे होश आ गया। वह गोपाल की ओर प्यार की आंखों से देखने लगा, जैसे कह रहा हो कि अब क्यों रोते हो ? मैं तो अच्छा हो गया !
कई दिन मिट्ठू की मरहम-पट्टी होती रही और आखिर वह बिल्कुल अच्छा हो गया। गोपाल अब रोज आता और उसे रोटियां खिलाता।
आखिर कंपनी के चलने का दिन आया। गोपाल बहुत रंजीदा1 था। वह मिट्ठू के कठघरे के पास खड़ा आंसू-भरी आंखों से देख रहा था कि मालिक ने आकर कहा, ‘‘अगर तुम मिट्ठू को पा जाओ तो उसका क्या करोगे ?’’
गोपाल ने कहा, ‘‘मैं उसे अपने साथ ले जाऊंगा, उसके साथ-साथ खेलूंगा, उसे अपनी थाली में खिलाऊंगा, और क्या !’’
मालिक ने कहा, ‘‘अच्छी बात है, मैं बिना तुमसे अठन्नी लिए ही इसे तुम्हारे हाथ बेचता हूं।’’
गोपाल को जैसे कोई राज2 मिल गया। उसने मिट्ठू को गोद में उठा लिया, पर मिट्ठू नीचे कूद पड़ा और उसके पीछे-पीछे चलने लगा। दोनों खेलते-कूदते घर पहुंच गये।
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पागल हाथी
मोती राजा साहब की खास सवारी का हाथी। यों तो वह बहुत सीधा और समझदार था, पर कभी-कभी उसका मिजाज गर्म हो जाता था और वह आपे में न रहता था। उस हालत में उसे किसी बात की सुधि न रहती थी, महावत का दबाव भी न मानता था। एक बार इसी पागलपन में उसने अपने महावत को मार डाला। राजा साहब ने वह खबर सुनी तो उन्हें बहुत क्रोध आया। मोती की पदवी छिन गयी। राजा साहब की सवारी से निकाल दिया गया। कुलियों की तरह उसे लकड़ियां ढोनी पड़तीं, पत्थर लादने पड़ते और शाम को वह पीपल के नीचे मोटी जंजीरों से बांध दिया जाता। रातिब1 बंद हो गया। उसके सामने सूखी टहनियां डाल दी जाती थीं और उन्हीं को चबाकर वह भूख की आग बुझाता। जब वह अपनी इस दशा को अपनी पहली दशा से मिलाता तो वह बहुत चंचल हो जाता। वह सोचता, कहां मैं राजा का सबसे प्यारा हाथी था और कहां आज मामूली मजदूर हूं। यह सोचकर जोर-जोर से चिंघाड़ता और उछलता। आखिर एक दिन उसे इतना जोश आया कि उसने लोहे की जंजीरें तोड़ डालीं और जंगल की तरफ भागा।

थोड़ी ही दूर पर एक नदी थी। मोती पहले उस नदी में जाकर खूब नहाया। तब वहां से जंगल की ओर चला। इधर राजा साहब के आदमी उसे पकड़ने के लिए दौड़े, मगर मारे डर के कोई उसके पास जा न सका। जंगल का जानवर जंगल ही में चला गया।
जंगल में पहुंचकर अपने साथियों को ढूंढ़ने लगा। वह कुछ दूर और आगे बढ़ा तो हाथियों ने जब उसके गले में रस्सी और पांव में टूटी जंजीर देखी तो उससे मुंह फेर लिया। उसकी बात तक न पूछी। उनका शायद मतलब था कि तुम गुलाम तो थे ही, अब नमकहराम गुलाम हो, तुम्हारी जगह इस जंगल में नहीं है। जब तक वे आंखों से ओझल न हो गये, मोती वहीं खड़ा ताकता रहा। फिर न जाने क्या सोचकर वहां से भागता हुआ महल की ओर चला।
वह रास्ते ही में था कि उसने देखा कि राजा साहब शिकारियों के साथ घोड़े पर चले आ रहे हैं। वह फौरन एक बड़ी चट्टान की आड़ में छिप गया। धूप तेज थी, राजा साहब जरा दम लेने को घोड़े़ से उतरे। अचानक मोती आड़ से निकल पड़ा और गरजता हुआ राजा साहब की ओर दौड़ा। राजा साहब घबराकर भागे और एक छोटी झोंपड़ी में घुस गये। जरा देर बाद मोती भी पहुंचा। उसने राजा साहब को अंदर घुसते देख लिया था। पहले तो उसने अपनी सूंड़ से ऊपर का छप्पर गिरा दिया, फिर उसे पैरों से रौंदकर चूर-चूर कर डाला।

भीतर राजा साहब का मारे डर के बुरा हाल था। जान बचने की कोई आशा न थी।
आखिर कुछ न सूझी तो वह जान पर खेलकर पीछे दीवार पर चढ़ गये, और दूसरी तरफ कूद कर भाग निकले। मोती द्वार पर खड़ा छप्पर रौंद रहा था और सोच रहा था कि दीवार कैसे गिराऊं ? आखिर उसने धक्का देकर दीवार गिरा दी। मिट्टी की दीवार पागल हाथी का धक्का क्या सहती ? मगर जब राजा साहब भीतर न मिले तो उसने बाकी दीवारें भी गिरा दीं और जंगल की तरफ चला गया।

घर लौटकर राजा साहब ने ढिंढोरा पिटवा दिया कि जो आदमी मोती को जीता पकड़कर लायेगा, उसे एक हजार रुपया इनाम दिया जायेगा। कई आदमी इनाम के लालच में उसे पकड़ने के लिए जंगल गये। मगर उनमें से एक भी न लौटा।
मोती के महावत के एक लड़का था। उसका नाम था मुरली। अभी वह कुल आठ-नौ बरस का था, इसलिए राजा साहब दया करके उसे और उसकी मां को खाने-पहनने के लिए कुछ खर्च दिया करते थे। मुरली था तो बालक पर हिम्मत का धनी था, कमर बांधकर मोती को पकड़ लाने के लिए तैयार हो गया। मगर मां ने बहुतेरा समझाया, और लोगों ने भी मना किया, मगर उसने किसी की एक न सुनी और जंगल की ओर चल दिया।
जंगल में गौर से इधर-उधर देखने लगा। आखिर उसने देखा कि मोती सिर झुकाये उसी पेड़ की ओर चला आ रहा है। उसकी चाल से ऐसा मालूम होता था कि उसका मिजाज ठंडा हो गया है।

ज्यों ही मोती उस पेड़ के नीचे आया, उसने पेड़ के ऊपर से पुचकारा ‘‘मोती।’’
मोती इस आवाज को पहचानता था। वहीं रुक गया और सिर उठाकर ऊपर की ओर देखने लगा। मुरली को देखकर पहचान गया। यह वही मुरली था, जिसे वह अपनी सूंड़ से उठाकर अपने मस्तक पर बिठा लेता था ! ‘‘मैंने ही इसके बाप को मार डाला है,’’ यह सोचकर उसे बालक पर दया आयी। खुश होकर सूंड़ हिलाने लगा।
मुरली उसके मन के भाव को पहचान गया। वह पेड़ से नीचे उतरा और उसकी सूंड़ को थपकियां देने लगा। फिर उसे बैठने का इशारा किया। मोती बैठा नहीं, मुरली को अपनी सूंड़ से उठाकर पहले ही की तरह अपने मस्तक पर बिठा लिया और राजमहल की ओर चला।

मुरली जब मोती को लिए हुए राजमहल के द्वार पर पहुंचा तो सबने दांतों उंगली दबाई। फिर भी किसी की हिम्मत न होती थी कि मोती के पास जाये। मुरली ने चिल्लाकर कहा, ‘‘डरो मत, मोती बिल्कुल सीधा हो गया है, अब वह किसी से न बोलेगा।’’ राजा साहब भी डरते-डरते मोती के सामने आये। उन्हें कितना अचंभा हुआ कि वही पागल मोती अब गाय की तरह सीधा हो गया है।
उन्होंने मुरली को एक हजार रुपया इनाम तो दिया ही, उसे अपना खास महावत बना लिया, और मोती फिर राजा साहब का सबसे प्यारा हाथी बन गया।

साभार: http://www.pustak.org/
 

शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

आत्म विद्या के पथ-प्रदर्शक: जैनाचार्य विद्यासागर


 
जन्म :
आश्विन शरदपूर्णिमा संवत 2003 तदनुसार 10 अक्टूबर 1946 को कर्नाटक प्रांत के बेलग्राम जिले के सुप्रसिद्ध सदलगा ग्राम में श्रेष्ठी श्री मलप्पा पारसप्पा जी अष्टगे एवं श्रीमती श्रीमतीजी के घर जन्मे इस बालक का नाम विद्याधर रखा गया। धार्मिक विचारों से ओतप्रोत, संवेदनशील सद्गृहस्थ मल्लपा जी नित्य जिनेन्द्र दर्शन एवं पूजन के पश्चात ही भोजनादि आवश्यक करते थे। साधु-सत्संगति करने से परिवार में संयम, अनुशासन, रीति-नीति की चर्या का ही परिपालन होता था।

जीवन में आस्था और विश्वास, चरित्र और निर्मल ज्ञान तथा अहिंसा एवं निर्बैर की भावना को बल देने वाले इन महापुरुषों, साधकों, संत कवियों के क्रम में संतकवि दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज वर्तमान में शिखर पुरुष हैं, जिनकी ओज और माधुर्यपूर्ण वाणी में ऋजुता, व्यक्तित्व में समता, जीने में संयम की त्रिवेणी है। जीवन-मूल्यों को प्रतिस्ठित करने वाले बाल ब्रह्मचारी श्री विद्यासागर जी स्वभाव से सरल और सब जीवों के प्रति मित्रवत व्यवहार के संपोषक हैं, इसी के कारण उनके व्यक्तित्व में विश्व-बन्धुत्व की, मानवता की सौंधी-सुगन्ध विद्यमान है।

बचपन
विद्याधर का बाल्यकाल घर तथा गाँव वालों के मन को जीतने वाली आश्चर्यकारी घटनाओं से युक्त रहा है। खेलकूद के स्थान पर स्वयं या माता-पिता के साथ मन्दिर जाना, धर्म-प्रवचन सुनना, शुद्ध सात्विक आहार करना, मुनि आज्ञा से संस्कृत के कठिन सूत्र एवं पदों को कंठस्थ करना आदि अनेक घटनाऐं मानो भविष्य में आध्यात्म मार्ग पर चलने का संकेत दे रही थी। आप पढाई हो या गृहकार्य, सभी को अनुशासित और क्रमबद्ध तौर पर पूर्ण करते। बचपन से ही मुनि-चर्या को देखने , उसे स्वयं आचरित करने की भावना से ही बावडी में स्नान के साय पानी में तैरने के बहाने आसन और ध्यान लगाना, मन्दिर में विराजित मूर्ति के दर्शन के समय उसमे छिपी विराटता को जानने का प्रयास करना, बिच्छू के काटने पर भी असीम दर्द को हँसते हुए पी जाना, परंतु धार्मिक-चर्या में अंतर ना आने देना, उनके संकल्पवान पथ पर आगे बढने के संकेत थे।

गाँव की पाठशाला में मातृभाषा कन्नड में अध्ययन प्रारम्भ कर समीपस्थ ग्राम बेडकीहाल में हाई स्कूल की नवमी कक्षा तक अध्ययन पूर्ण किया। चाहे गणित के सूत्र हों या भूगोल के नक्शे, पल भर में कडी मेहनत और लगन से उसे पूर्ण करते थे। उन्होनें शिक्षा को संस्कार और चरित्र की आधारशिला माना और गुरुकुल व्यवस्थानुसार शिक्षा को ग्रहण किया, तभी तो आजतक गुरुशिष्य-परम्परा के विकास में वे सतत शिक्षा दे रहे हैं।

परिवार:
बडे भाई श्री महावीर प्रसाद स्वस्थ परम्परा का निर्वहन करते हुए सात्विक पूर्वक सद्गृहस्थ जीवन-यापन कर रहे हैं। माता-पिता, दो छोटे भाई अनंतनाथ तथा शांतिनाथ एवं बहिनें शांता व सुवर्णा भी आपसे प्रेरणा पाकर घर-गृहस्थी के जंजाल से मुक्त हो कर जीवन-कल्याण हेतु जैनेश्वरी दीक्षा ले कर आत्म-साधनारत हुए। धन्य है वह परिवार जिसमें सात सदस्य सांसारिक प्रपंचों को छोड कर मुक्ति-मार्ग पर चल रहे हैं। इतिहास में ऐसी अनोखी घटना का उदाहरण बिरले ही दिखता है।

जैनागम का अध्ययन
वास्तविक शिक्षा तो ब्रह्मचारी अवस्था में तथा पुनः मुनि विद्यासागर के रूप में गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी के सान्निध्य में पूरी हुई। तभी वे प्रकृत, अपभ्रंस, संस्कृत, कन्नड, मराठी, अंग्रेजी, हिन्दी तथा बंग्ला जैसी अनेक भाषाओं के ज्ञाता और व्याकरण, छन्दशास्त्र, न्याय, दर्शन, साहित्य और अध्यात्म के प्रकाण्ड विद्वान आचार्य बने। आचार्य विद्यासागर मात्र दिवस काल में ही चलने वाले नग्नपाद पदयात्री हैं। राग, द्वेष, मोह आदि से दूर इन्द्रियजित, नदी की तरह प्रवाहमान, पक्षियों की तरह स्वच्छन्द, निर्मल, स्वाधीन, चट्टान की तरह अविचल रहते हैं। कविता की तरह रम्य, उत्प्रेरक, उदात्त, ज्ञेय और सुकोमल व्यक्तित्व के धनी आचार्य विद्यासागर भौतिक कोलाहलों से दूर, जगत मोहिनी से असंपृक्त तपस्वी हैं।

आपके सुदर्शन व्यक्तित्व को संवेदनशीलता, कमलवत उज्जवल एवं विशाल नेत्र, सम्मुन्नत ललाट, सुदीर्घ कर्ण, अजान बाहु, सुडौल नासिका, तप्त स्वर्ण-सा गौरवर्ण, चम्पकीय आभा से युक्त कपोल, माधुर्य और दीप्ति सन्युक्त मुख, लम्बी सुन्दर अंगुलियाँ, पाटलवर्ण की हथेलियाँ, सुगठित चरण आदि और अधिक मंडित कर देते हैं। वे ज्ञानी, मनोज्ञ तथा वाग्मी साधु हैं। और हाँ प्रज्ञा, प्रतिभा और तपस्या की जीवंत-मूर्ति।

वैराग्य :
बाल्यकाल में खेलकूद में शतरंज खेलना, शिक्षाप्रद फिल्में देखना, मन्दिर के प्रति आस्था रखना, तकली कातना, गिल्ली-डंडा खेलना, महापुरुषों और शहीद पुरुषों के तैलचित्र बनाना आदि रुचियाँ आपमें विद्यमान थी। नौ वर्ष की उम्र में ही चारित्र चक्रवर्ती आचार्य प्रवर श्री शांतिसागर जी महाराज के शेडवाल ग्राम में दर्शन कर वैराग्य-भावना का उदय आपके हृदय में हो गया था। जो आगे चल कर ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर प्रस्फुटित हुआ। 20 वर्ष की उम्र, जो की खाने-पीने, भोगोपभोग या संसारिक आनन्द प्राप्त करने की होती है, तब आप साधु-सत्संगति की भावना को हृदय में धारण कर आचार्य श्री देशभूषण महाराज के पास जयपुर(राज.) पहुँचे। वहाँ अब ब्रह्मचारी विद्याधर उपसर्ग और परीषहों को जीतकर ज्ञान, तपस्या और सेवा का पिण्ड/प्रतीक बन कर जन-जन के मन का प्रेरणा स्त्रोत बन गया था।

मुनि दीक्षा/ जैनेश्वरी दीक्षा:
आप संसार की असारता, जीवन के रहस्य और साधना के महत्व को पह्चान गये थे। तभी तो हृष्ट-पुष्ट, गोरे चिट्टे, लजीले, युवा विद्याधर की निष्ठा, दृढता और अडिगता के सामने मोह, माया, श्रृंगार आदि घुटने टेक चुके थे। वैराग्य भावना ददृढवती हो चली। अथ पदयात्री और करपात्री बनने की भावना से आप गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पास मदनगंज-किशनगढ(अजमेर) राजस्थान पहुँचे। गुरुवर के निकट सम्पर्क में रहकर लगभग 1 वर्ष तक कठोर साधना से परिपक्व हो कर मुनिवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के द्वारा राजस्थान की ऐतिहासक नगरी अजमेर में आषाढ शुक्ल पंचमी, वि.सं. 2025, रविवार, 30 जून 1968 ईस्वी को लगभग 22 वर्ष की उम्र में सन्यम का परिपालन हेतु आपने मत्र पिच्छि-कमन्डलु धारण कर संसार की समस्त बाह्य वस्तुओं का परित्याग कर दिया। परिग्रह से अपरिग्रह, असार से सार की ओर बढने वाली यह यात्रा मानो आपने अंगारों पर चलकर/बढकर पूर्ण की। विषयोन्मुख वृत्ति, उद्दंडता एवं उच्छृंखलता उत्पन्न करने वाली इस युवावस्था में वैराग्य एवं तपस्या का ऐसा अनुपम उदाहरण मिलना कठिन ही है।

ब्रह्मचारी विद्याधर नामधारी, पूज्य मुनि श्री विद्यासागर महाराज। अब धरती ही बिछौना, आकाश ही उडौना और दिशाएँ ही वस्त्र बन गये थे। दीक्षा के उपरांत गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज की सेवा – सुश्रुषा करते हुए आपकी साधना उत्तरोत्त्र विकसित होती गयी। तब से आज तक अपने प्रति वज्र से कठोर, परंतु दूसरों के प्रति नवनीत से भी मृदु बनकर शीत-ताप एवं वर्षा के गहन झंझावातों में भी आप साधना हेतु अरुक-अथक रूप में प्रवर्तमान हैं। श्रम और अनुशासन, विनय और संयम, तप और त्याग की अग्नि मे तपी आपकी साधना गुरु-आज्ञा पालन, सबके प्रति समता की दृष्टि एवं समस्त जीव कल्याण की भावना सतत प्रवाहित होती रहती है।

गुरुवर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी की वृद्धावस्था एवं साइटिकासे रुग्ण शरीर की सेवा में कडकडाती शीत हो या तमतमाती धूप, य हो झुलसाती गृष्म की तपन, मुनि विद्यासागर के हाथ गुरुसेवा मे अहर्निश तत्पर रहते। आपकी गुरु सेवा अद्वितीय रही, जो देश, समाज और मानव को दिशा बोध देने वाली थी। तही तो डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य ने लिखा था कि 10 लाख की सम्पत्ति पाने वाला पुत्र भी जितनी माँ-बाप की सेवा नहीं कर सकता, उतनी तत्परता एवं तन्मयता पूर्वक आपने अपने गुरुवर की सेवा की थी।

आचार्य पद :
सल्लेखना के पहले गुरुवर्य ज्ञानसागर जी महाराज ने आचार्य-पद का त्याग आवश्यक जान कर आपने आचार्य पद मुनि विद्यासागर को देने की इच्छा जाहिर की, परंतु आप इस गुरुतर भार को धारण करने किसी भी हालत में तैयार नहीं हुए, तब आचार्य ज्ञानसागर जी ने सम्बोधित कर कहा के साधक को अंत समय में सभी पद का परित्याग आवश्यक माना गया है। इस समय शरीर की ऐसी अवस्था नहीं है कि मैं अन्यत्र जा कर सल्लेखना धारण कर सकूँ। तुम्हें आज गुरु दक्षिणा अर्पण करनी होगी और उसी के प्रतिफल स्वरूप यह पद ग्रहण करना होगा। गुरु-दक्षिणा की बात सुन कर मुनि विद्यासागर निरुत्तर हो गये।

आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज द्वारा आचार्यपद त्याग एवं सल्लेखना धारण :
तब धन्य हुई नसीराबाद (अजमेर) राजस्थान की वह घडी जब मगसिर कृष्ण द्वितीया, संवत 2029, बुधवार, 22 नवम्बर,1972 ईस्वी को आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने अपने कर कमलों आचार्य पद पर मुनि श्री विद्यासागर महाराज को संस्कारित कर विराजमान किया। इतना ही नहीं मान मर्दन के उन क्षणों को देख कर सहस्त्रों नेत्रों से आँसूओं की धार बह चली जब आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने मुनि श्री विद्यासागर महाराज को आचार्य पद पर विराजमान किया एवं स्वयं आचार्य पद से नीचे उतर कर सामान्य मुनि के समान नीचे बैठ कर नूतन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज के चरणों में नमन कर बोले – “ हे आचार्य वर! नमोस्तु, यह शरीर रत्नत्रय साधना में शिथिल होता जा रहा है, इन्द्रियाँ अपना सम्यक काम नहीं कर पा रही हैं। अतः आपके श्री चरणों में विधिवत सल्लेखना पूर्वक समाधिमरण धारण करना चाहता हूँ, कृपया मुझे अनुगृहित करें।“ आचार्य श्री विद्यासागर ने अपने गुरु की अपूर्व सेवा की। पूर्ण निमर्मत्व भावपूर्वक आचार्य ज्ञानसागर जी मरुभूमि में वि. सं. 2030 वर्ष की ज्येष्ठ मास की अमावस्या को प्रचंड ग्रीष्म की तपन के बीच 4 दिनों के निर्जल उपवास पूर्वक नसीराबाद (राज.) में ही शुक्रवार, 1 जून 1973 ईस्वी को 10 बजकर 10 मिनट पर इस नश्वर देह को त्याग कर समाधिमरण को प्राप्त हुए।

आचार्य विद्यासागरजी द्वारा रचित रचना-संसार में सर्वाधिक चर्चित ओर महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में “मूक माटी” महाकाव्य ने हिन्दी-साहित्य और हिन्दी सत-सहित्य जगत में आचार्य श्री को काव्य की आत्मा तक पहुँचाया है।

सन्दर्भ: 1.www.vidyasagar.net 2. Text Help by Smt. Susheela Devi Patni

मंगलवार, 20 सितंबर 2011

सराक कौन हैं?

सराक कौन हैं?

सराक एक जैनधर्मावलंवी समुदाय है। इस समुदाय के लोग बिहार, झारखण्ड, बंगाल एवं उड़ीसा के लगभग १५ जिलों में निवास करते हैं। इनकी संख्या लगभग १५ लाख है।सराक संस्कृत के शब्द श्रावक का अपभ्रंश रूप है। इसका अर्थ है श्रावक अर्थात जैनधर्म में आस्था रखने वाले श्रद्धालु।

ये जैनधर्म के २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के तीर्थकाल के प्राचीन श्रावकों की वंश परंपरा के उत्तराधिकारी हैं। सराक जाति पिछले दो हज़ार वर्षों से देश में व्यवस्थित शासन के अभाव, अराजकता, नैतिक अस्थिरता आदि परिस्थितियों में धर्मद्रोहियों से बचने के लिए जंगलों में भटकती रही है। समय की मार, क्रूर शासको के अत्याचारों के साथ-साथ अनेक झंझावातों एवं विपरीत परिस्थितियों को झेलते हुए भी उन्होंने अपने मूल संस्कारों जैसे-नाम/ गोत्र/ भक्ति/ उपासना/ पुजपध्दति/ जलगालन/ रात्रिभोजन त्याग/ अहिंसा की भावना को नहीं छोड़ा। परन्तु समाज के उपेक्षा-भाव तथा निर्ग्रन्थ साधुयों का साथ न मिलने के कारण वे जैन समाज की मूलधारा से कटकर आदिवासी और जनजाति की श्रेणी में आ गये।
·      भगवान पार्श्वनाथ एवं भगवान महावीर को अपना कुल देवता मानते हैं| इनके गोत्र भी जैन धर्म के चौबीस तीर्थकरों के नाम पर हैं, जैसे आदिदेव, शांतिदेव, धर्मदेव, अनंतदेव आदि | सराकों को ‘णमोकार मंत्र’ में अटूट आस्था है|
·      सराकों के विषय में जैन ही नहीं अपितु जैनेत्तर विद्वानों,पुरातत्ववेत्ताओं, भ्रमणकारियों, जनगणना रिपोर्टों में भी अनेक प्रामाणिक एवं  महत्वपूर्ण तथ्य उजागर हुए हैं, जो पुष्टि करते हैं कि सराक जैन श्रावक ही  हैं और काफी लंबे समय से वन्य क्षेत्र में जीवनयापन कर रहे हैं|
·      मि० आई० टी० डाल्टन एवं एच० एस० रिसले (बंगाल और पुरी डिस्ट्रिक्ट गजेटियर १९०८-१९१०) के अनुसार –
“सराकगण झारखण्ड में बसने वाले पहले आर्य हैं, ये अहिंसा धर्म में आस्था रखते हैं|”

मि० गेटसेसंस रिपोर्ट-
“बंगाल देश में एक खास तरह के लोग रहते हैं, जिनको श्रावक कहते हैं| ये मूलरूप से जैन हैं|”

Mr. L.S.S.O. Mally -
“The name Saravak, ‘Sarak’ or ‘Sarakis’ clearly a corruption of Shravak. The Sanskrit word for a hearer which was used by the Jains for lay brothers that is a Jain engaged in secular pursuits as distinguished from ‘Yati’ that is priest as ascetics.”



जैन संस्कृति के अद्भुत उदाहरण करते अपना पुनर्जागरण
·      सदियों से नितांत सुविधाविहीन स्थितियों में  दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों, जंगलों में रहते हुए एवं अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए भी ये ‘सराक’ पूरी सतर्कता के साथ अपने संस्कारों को निभाते चले आ रहे हैं |
·      अपने पूर्वजों से प्राप्त संस्कृति और संस्कारों की अनमोल धरोहर को न सिर्फ उन्होंने सुरक्षित ढंग से संरक्षित किया है, बल्कि बड़ी तत्परता के साथ उनका पालन किया है| ऐसी कसौटी पर खरा उतरकर उन्होंने अपने जैनत्व को विश्वभर में स्थापित किया है|
·      यदि वर्तमान में जैन समाज एक विशालतम वटवृक्ष है, तो सराक उस वटवृक्ष की एक मजबूत शाखा है, जिन पर यह वृक्ष पल्लवित होकर विस्तृत हुआ है| यदि वर्तमान जैन-संघ ‘जिनेश्वर’ की प्रतिमा है, तो सराक उस प्रतिमा के अवशेष हैं| यदि ‘जैन’ रूपी  पर्वत की खुदाई की जाये, तो ‘सराक’ उस खुदाई की उपलब्ध होंगे|
·      सत्य तो यह है कि हम ‘जैन’ लिखने वाले तो आधुनिकता में बह गये हैं, परन्तु सराक आज भी श्रावक के मूलगुणों का पालन करते हैं| भले ही सैद्धांतिक रूप से मूलगुणों के नाम याद न हों, पर उनके आचरण में वे देखे जा सकते हैं|
·      प्रकृति से शांत, सौम्य, सरल सराक गर्व से कहते हैं कि आज तक इनकी किसी भी पीढ़ी ने ऐसा कोई अपराध नहीं किया, जिसके लिए उन्हें जेल जाना पड़ा हो या सजा मिली हो|
·      ये सराक जैन आज भी जैन संस्कृति की अमूल्य संपदा को व्यवहार में पालन कर सच्चे “जैनी” आगमोक्त ‘श्रावक’ होने का प्रमाण दे रहे हैं|
शैली में शाकाहार, अनुपमेय है अतिथि सत्कार
·      सराकों की अनेक ऐसी विशेषताएं हैं, जिन्हें देखकर आशचर्य होता है लेकिन वे हैं सत्य| ये सराक मांसाहारियों के बीच रहते हुए भी पूर्ण शाकाहारी हें| यह इनके जीवन की सबसे बड़ी विशेषता है| एक अंग्रेज ने अपनी लेखनी द्वारा बड़ा आश्चर्य व्यक्त किया है ‘कि मुझे आश्चर्य होता है कि मांसाहारियों के झुण्ड में रहकर भी ये बंधु शाकाहारी कैसे हैं?”
·      शैली में तो अहिंसा के दर्शन होते ही हैं, साथ ही बोलचाल की भाषा में भी हिंसात्मक शब्द जैसे काटना, मारना, तोड़ना इत्यादि हिन्साजनक शब्द इस समाज में नहीं बोले जाते| काटो, टुकड़े करो आदि शब्द बोलने से सब्जी को भी अशुध्द मानते हैं|
·      साथ ही रात्रि भोजन नहीं करते| उदंबर फलों में सूक्ष्म जीव होने से उन्हें अभक्ष्य मानते हैं| प्याज, लहसुन के सेवन का भी पूर्ण निषेध है|
·      ये सराक भाई अतिथि को देव तुल्य मानते हैं| स्वभाव से सहज एवं सरल हैं| अतिथि-सत्कार के प्रति उत्साहित रहते हैं| विवाह अपने ही समाज में करते हैं| परंपरा से विधवा-विवाह एवं विजातीय विवाह का निषेध करते हैं|

मूल्यवान धरोहर के धारक, जैन-धर्म के सच्चे प्रचारक

सराक बाहुल्य क्षेत्र बिहार, झारखण्ड, बंगाल, उड़ीसा में पुरातत्व की द्रष्टि से जैन संस्कृति का पुरावैभव यत्र-तत्र देखा जा सकता है| इधर-उधर बिखरे पड़े बहुमूल्य कलापूर्ण जैन मंदिर, मूर्तियाँ और विपुल जैन कीर्तियाँ सराक बंधुओं की जैन समाज के प्रति आस्था और समर्पण की जीवंत गाथा गाती नजर आती हैं| इनका विगत गौरव, पूर्वजों का धर्मं व संस्कार इनकी विरासत हैं| कोलकाता, पटना और भुवनेश्वर के संग्रहालयों में सराक क्षेत्र से प्राप्त जैन प्रतिमाएं रखी हुई हैं| ये गुप्त युग की कला का प्रतिनिधित्व करती हैं| यहाँ पाषाण और धातु की अन्य कई जैन मूर्तियाँ हैं, जिनका काल ईसा कि ९वीं शताब्दी मन जाता है, साथ ही अनेको स्थानों पर खण्डित-अखण्डित जैन प्रतिमायें, ध्वस्त मंदिर, जैन अवशेष बिखरे पड़े हैं, जिनमे प्रमुख हैं- बिहार में गया जिले के अंतर्गत पचार पहाड़ी, बह्यजूनी पहाड़ी|
·      देवलतांड प्राचीन एवं भव्य दिगंबर जैन मंदिर लगभग १००० वर्ष प्राचीन है| इसका भव्य शिखर अत्यंत मनोहारी है तथा यहाँ भगवान पार्श्वनाथ की खड्गासन प्रतिमा विराजमान है|
·      अनाईजामाबाद जो पुरुलिया से १० कि० मी० की दूरी पर कंसा नदी के किनारे स्थित है, यहाँ से खुदाई में ११ जैन मंदिर तथा अनेक जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुई है|
·      बंगाल में मानभूमि के अतिरिक्त बलरामपुर, बोरम, दारिका, दर्रा,  पवनपुर, पंचेत, तेलकुपी पखाग्रा बड़ाबाजार में अनेक प्राचीन अवशेष हैं| जिला हुगली में दतिपुर, रबनुला में भी जैन अवशेष हैं| सिंहभूमि के अतिरिक्त बेनुसागर, कोलन, रुँआन, हांसी, हुरुणडीह, देवलटान्ड़, नवाडीह, तमाड़ में प्राचीन जैन स्मारक हैं| उपरोक्त एतिहासिक स्थल इस बात का स्पष्ट प्रमाण देते रहे हैं कि सराक बाहुल्य क्षेत्र जैनियों का क्षेत्र रहा है, अत; सराक जैन ही हैं|

“सराकों” के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों के अभिमत-

‘सराक’ शब्द की व्युत्पति बड़ी रोचक है| सराक संस्कृत के ‘श्रावक’ शब्द से व्युत्पन्न माना जाता है| इसे लेकर अब तक जो अनुमान लगाये जा रहे हैं, उनका संक्षेप इस प्रकार है:

यह ‘श्रावक’ शब्द से बना है| ‘श्रावक’ का स्वर-शक्ति के नियम से ‘सरावक’ हुआ और फिर ‘सरावक’ में से ‘व’ के लोप द्वारा ‘सराक’ शब्द बना|

“in the district of Manbhoom we find two district-type of architectural remains. Those that appear most disunct and are said by the people to be so are ascribed, traditionally and no doubt correctly to arace called variously “Searp”. “Serab”, “Seark”, “Srawaka”, who were probably the earliest Aryan colonist in this part of India.”

गुरुवार, 23 जून 2011

जैन धर्म में ॐ चिन्ह

विकिपीडिया, एक मुक्त ज्ञानकोष से

अरहंता असरीरा आइरिया तह उवज्झया मुणिणो। पढमक्खरणिप्पणो ओंकारो पंचपरमेट्ठी।।
जैनागम में अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु यानी मुनि रूप पाँच परमेष्ठी ही आराध्य माने गए हैं। इनके आद्य अक्षरों को परस्पर मिलाने पर ओम्’/‘ओं बन जाता है। यथा, इनमें से प्रथम परमेष्ठी अरिहन्तया अर्हन्तका प्रथम अक्षर को लिया जाता है। द्वितीय परमेष्ठी सिद्धहै, जो शरीर रहित होने से अशरीरी कहलाते हैं। अत: अशरीरीके प्रथम अक्षर को अरिहन्तके से मिलाने पर अ+अ=बन जाता है।
उसमें तृतीय परमेष्ठी आचार्यका प्रथम अक्षर मिलाने पर आ+आ मिलकर ही शेष रहता है। उसमें चतुर्थ परमेष्ठी उपाध्यायका पहला अक्षर को मिलाने पर आ+उ मिलकर हो जाता है। अंतिम पाँचवें परमेष्ठी साधुको जैनागम में मुनि भी कहा जाता है। अत: मुनि के प्रारंभिक अक्षर म्को से मिलाने पर ओ+म् = ओम्या ओंबन जाता है।
इसे ही प्राचीन लिपि में ॐ के रूप में बनाया जाता रहा है।
जैनशब्द में ’, ‘तथा के ऊपर संबंधी दो मात्राएँ बनी होती हैं। इनके माध्यम से ही जैन परम्परागत ओंका चिह्न बनाया जा सकता है। इस ओम्के प्रतीक चिह्न को बनाने की सरल विधि चार चरणों में निम्न प्रकार हो सकती है-
  • जैनशब्द के प्रथम अक्षर को अँग्रेजी में जे’- J लिखा जाता है। अत: सबसे पहले जे’- J को बनाएँ-
  • तदुपरान्त जैनशब्द में द्वितीय अक्षर है। अत: उस जे’- J के भीतर/ साथ में हिन्दी का बनाएँ-
  • चूँकि जैनशब्द में के ऊपर संबंधी दो मात्राएँ होती हैं। अत: उसके ऊपर प्रथम मात्रा के प्रतीक स्वरूप पहले चन्द्रबिन्दु बनाएँ-
  • तदुपरान्त द्वितीय मात्रा के प्रतीक स्वरूप उसके ऊपर चन्द्रबिन्दु के दाएँ बाजू में रेफजैसी आकृति बनाएँ-
इस प्रकार जैन परम्परा सम्मत यानी ओम्’/ ‘ओंकी आकृति निर्मित हो जाती है।
जैन परम्परा की अनेक मूर्तियों की प्रशस्तियों, यंत्रों, हस्तलिखित ग्रंथों, प्राचीन शिलालेखों एवं प्राचीन लिपि में इसी प्रकार से -ओम्’/‘ओंका चिह्न बना हुआ पाया जाता है। वस्तुत: प्राचीन लिपि में के ऊपर रेफके समान आकृति बनाने से वह हो जाता था। और उसके साथ चन्द्रबिन्दु प्रयुक्त होने से वह -ओम्’/‘ओं बन जाता था। किन्तु वर्तमान में हस्तलिखित ग्रंथ पढ़ने अथवा उनके लिखने की परम्परा का अभाव हो जाने के कारण अब प्रिंटिंग प्रेस में छपाई का कार्य होने लगा है। हम लोगों की असावधानी अथवा अज्ञानता के कारण प्रिटिंग प्रेस में यह परिवर्तित होकर अन्य परम्परा मान्य ॐ बनाया जाने लगा। इसके दुष्परिणाम स्वरूप हम लोग जैन परम्परा द्वारा मान्य चिह्न को प्राय: भूल गए हैं और ॐ को ही भ्रमवश जैन परम्परा सम्मत मान बैठे हैं।
जैन परम्परा सम्मत इस का shree लिपि के Symbol Font Samples के अंतर्गत नं. 223 में N तथा नं. 231 में j को Key Strock करके प्राप्त किया या बनाया जा सकता है एवं पूजाफॉन्ट में Alt+0250 से भी प्राप्त किया जा सकता है। संभव है कि इसके अतिरिक्त क्लिप आर्टमें अन्यत्र भी यह चिह्न उपलब्ध हो सकता है।
इस प्रकार जैन परम्परा को सुरक्षित रखने हेतु सभी मांगलिक शुभ अनुष्ठानों, पत्रिकाओं, विज्ञापनों, इंटरनेट, ग्रीटिंग्स, ‍होर्डिंग्स, बैनर, एस.एम.एस., नूतन प्रकाशित होने वाले साहित्य, स्टीकर्स, बहीखाता, पुस्तक, कॉपी, दीवार आदि पर जैन परम्परा द्वारा मान्य का प्रतीक चिह्न बनाकर इसका अधिकाधिक प्रचार-प्रसार किया/कराया जा सकता है।
इस संबंध में जैन धर्म के प्रभावनारत पूज्य आचार्यदेव, साधुगण, साध्वियाँ, विद्वत्मनीषी, प्रवचनकार भी अपने धर्मोपदेश के समय जैन परम्परागत इस ओम्की जानकारी तथा इसे बनाने की प्रायोगिक विधि भी जनसामान्य को बतलाकर अर्हन्त भगवान् के जिन-शासन के वास्तविक स्वरूप को प्रकट कर/करा सकते हैं। इसे बनाने की विधि सुन-समझकर धार्मिक पाठशालाओं में अध्ययनरत बालक-बालिकाओं को इसकी प्रायोगिक विधि से अभ्यास कराए जाने पर भविष्य में उनके द्वारा इसे ही बनाना प्रारंभ किया जा सकेगा।