जैन साधना का प्राण है सल्लेखना
- मुनिश्री १०८ प्रमाणसागर जी महाराज
सल्लेखना जैन साधना का प्राण है. सल्लेखना के अभाव में जैन साधक की साधना सफल नहीं हो पाती. जिस प्रकार वर्षभर पढ़ाई करने वाला विद्यार्थी यदि ठीक परीक्षा के समय विद्यालय न जाये तो उसकी वर्षभर की पढ़ाई निरर्थक हो जाती है, उसी तरह पूरे जीवनभर साधना करने वाला साधक यदि अंत समय में सल्लेखना /संथारा धारण न कर सके तो उसकी साधना निष्फल हो जाती है.
सल्लेखना का फल बताते हुए जैन शास्त्रों में लिखा गया है कि यदि कोई भी व्यक्ति निर्दोष रीति से सल्लेखना धारण करे तो वह उसी भव में (चरमशरीरी होने पर) मोक्ष को पा सकता है. मध्यम रीति से सल्लेखना करने वाला साधक तीसरे भव में और जघन्य (साधारण) रीति से सल्लेखना करने वाले मुनि अथवा गृहस्थ सात अथवा आठ भव में निश्चयतः मुक्ति को पा लेते हैं. यही कारण है कि प्रत्येक जैन साधक अपने मन में सदैव यही भावना भाता है कि उसके जीवन का अंत सल्लेखना पूर्वक हो, वह सल्लेखना पूर्वक ही जीवन का अंत करना चाहता है. उसकी आन्तरिक भावना यही होती है कि मैं सल्लेखना के साथ ही जीवन की अंतिम श्वास लूँ.
सल्लेखना का अर्थ :
“सल्लेखना” शब्द सत् + लेखन से बना है. जिसमें सत् का अर्थ है अच्छी तरह से, भली प्रकार से, समीचीन प्रकार से एवं “लेखन” का यहाँ अर्थ है कृष करना अथवा क्षीण करना. अपनी काया एवं कषायों को सम्यक प्रकार से कृष करना सल्लेखना कहलाता है. अर्थात् प्रत्येक साधक को अपनी कषायों/विकारों के शमन के साथ शरीर को कृष करना चाहिए. यहाँ शरीर को कृष करने का अर्थ अनावश्यक रूप से सुखाना नहीं है अपितु अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को कम करते हुए शरीर का शोधन करना है . कुल मिलाकर, अपने विकारों के शमन और शरीर के शोधनपूर्वक आत्मजागृति के साथ जीवन की अंतिम श्वास लेना, सल्लेखना कहलाती है.
सल्लेखना क्यों?
जिसने जन्म लिया है उसका मरण भी सुनिश्चित है. तरह तरह के औषध उपचार अथवा मन्त्र तंत्र भी मनुष्य को मरने से बचा नहीं सकते हैं. “जातस्य मरणं ध्रुवं, ध्रुवं जन्म मृतस्य च” जन्म लेने वाले का मरण और मरने वाले का जन्म निश्चित है. इस उक्ति के अनुसार मृत्युकाल सन्निकट आने पर मृत्यु से घबराने के स्थान पर उस जीवन का अनिवार्य/ अटल सत्य मानकार आत्मजागृति के साथ वीरतापूर्वक जीवन को संपन्न करना ही सल्लेखना का उद्देश्य है.
जैन साधना भेद विज्ञान मूलक है यहाँ भेद विज्ञान का अर्थ है ऐसा विज्ञान जो मनुष्य को आत्मा और शरीर के अलग-२ होने के सत्य को उजागर करे. शरीर और आत्मा की भिन्नता के अहसास के साथ अपनी आत्मा का शोधन करना ही जैन साधक का परम लक्ष्य होता है. अंतःकरण में वैराग्य और भेद विज्ञान के साथ किया गया तपानुष्ठान आत्मा के कल्याण का मुख्य कारण है , तपस्या से ही आत्मा में निखार आता है. सल्लेखना भी एक प्रकार की विशिष्ट तपस्या है.
सल्लेखना कब और किसे?
जैन शास्त्रों में कहा गया है कि साधक को अपने शरीर के माध्यम से सतत साधना करते रहना चाहिए, जब तक शरीर साधना के अनुकूल प्रतीत हो शरीर को पर्याप्त पोषण देते रहना चाहिए परन्तु जब शरीर में शिथिलता आने लगे व हमारी साधना में बाधक प्रतीक होने लगे, बुढ़ापे के कारण शरीर अत्यंत क्षीण, जर्जर हो जाए अथवा ऐसा कोई रोग हो जाए जिसका कोई उपचार न हो, उसकी चिकित्सा न की जा सके तो उस घड़ी में शरीर की नश्वरता एवं आत्मा की अमरता को जानकर धर्म ध्यान पूर्वक इस देह का त्याग करना सल्लेखना कहा जाता है.
महान जैन ग्रन्थ ‘रत्नकरंडक श्रावकाचार’ में कहा भी गया है:
“उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च नि:प्रतीकारे
धर्माय तनु विमोचन माहु सल्लेखनामार्या
अर्थात् ऐसा उपसर्ग जिसमें बचने की संभावना न हो, अत्यधिक बुढ़ापा और ऐसा असाध्य रोग हो जाए जिसका कोई इलाज संभव न हो तब धर्म रक्षा के लिए अपने शरीर के त्याग को सल्लेखना कहते हैं. उक्त कथन से यह स्पष्ट है कि हर किसी को या जब कभी भी सल्लेखना करने की अनुमति नहीं है. जब शरीर हमारी साधना में साथ देने योग्य ना हो अथवा उसे सम्भाल पाना सम्भव ना हो तब सल्लेखना ग्रहण की जाती है.
सल्लेखना की विधि:
सल्लेखना का यह अर्थ नहीं है कि एकसाथ सभी प्रकार के भोजन एवं पानी तो त्याग करके बैठ जाना. अपितु सल्लेखना की एक विधि है. इस प्रक्रिया के अनुसार साधक अपनी कषायों को कृष करने के क्रम में अपने मन को शोक, भय, अवसाद, स्नेह, बैर, राग द्वेष और मोह जैसे विकारी भावों का भेद विज्ञान के बल पर शमन करता है . और अपनी साधना के द्वारा अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को कम करता जाता है. वैसे अंत समय में जब हमारे शरीर में शिथिलता आ जाती है, शरीर के अंग काम करना बंद कर देते हैं, व्यक्ति का खाना पीना भी छूट जाता है. साधक अपने शरीर को कृष करने के क्रम में सबसे पहले अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को कम करते हुए क्रमशः स्थूल आहार जैसे दाल-भात, रोटी आदि का त्याग करता है, उसके बाद केवल पेय पदार्थों का सेवन करता है. फिर धीरे-धीरे अन्य पेय पदार्थों को कम करते हुए मात्र जल लेता है, शक्ति अनुसार बीच बीच में उपवास भी करता है और अत्यंत सहज और शांत भावों से इस संसार से विदा लेता है.
सल्लेखना आत्महत्या नहीं है:
देह विसर्जन की इतनी तर्कसंगत एवं वैज्ञानिक पद्धति को आत्महत्या कहना अथवा इच्छामृत्यु या सतीप्रथा निरुपित करना बड़ा आश्चर्यजनक है यदि जैन धर्म में प्रतिपादित ‘सल्लेखना’ की मूल अवधारणा को ठीक ढंग से समझा गया होता तो ऐसा कभी नहीं होता. जैन धर्म में आत्महत्या को घोर पाप निरुपित करते हुए कहा गया है ‘आत्मघातं महत्पापं’.हत्या ‘स्व’ की हो अथवा ‘पर’ की हो हत्या तो हत्या है. जैन धर्म में ऐसी हत्या को कोई स्थान नहीं है. इस साधना अथवा सल्लेखना के लिए आत्महत्या जैसे शब्द का प्रयोग तो तब किया जा सकता है जब यह मरने के लिए की जाए. जबकि सल्लेखना मरने के लिए नहीं जीवन-मरण से ऊपर उठने के लिए की जाती है. सल्लेखना के पाँच अतिचारों से यह बात एकदम स्पष्ट हो जाती है:
“जीवितमरणाशंसा शंसामित्रनुराग सुखानुबंध निदानानि”
उक्त सूत्र में “ जीवितआशंसा” अर्थात् जीने की इच्छा तथा “मरणाशंसा” अर्थात् मरने की इच्छा को सल्लेखना का अतिचार/दोष कहा गया है. ऐसी सल्लेखना की पावन प्रक्रिया को आत्महत्या कहना कितना आश्चर्यजनक है. वस्तुतः सल्लेखना आत्महत्या नहीं आत्मलीनता है, जिसमें साधक आत्मा की विशुद्धि एवं शरीर की शुद्धि के साथ अपनी अंतिम साँस लेता है.
सल्लेखना एवं आत्महत्या दोनों को कभी एक नहीं कहा जा सकता है. दोनों की मानसिकता में महान अंतर है:
सल्लेखना
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आत्महत्या
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सल्लेखना धर्म है
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आत्महत्या अपराध है, पाप है
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समता से प्रेरित होकर ली जाती है
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कषाय से प्रेरित होकर ली जाती है
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परम प्रीति और उत्साहपूर्वक
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तीव्र मानसिक असंतुलन, घोर हताशा और अवसादग्रस्त स्थिति में
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लक्ष्य जीवन मरण से ऊपर उठाना है
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लक्ष्य केवल मरना है
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आत्मा की अमरता , शरीर की नश्वरता को समझकर आत्मोद्धार के लिए
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देह विनाश को अपना नाश मानकर की जाती है
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जीवन के अंतिम समय में
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जीवन में कभी भी की जा सकती है
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सल्लेखना मोक्ष का कारण बनती है
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आत्महत्या नरक का द्वार खोलती है
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सल्लेखना को सतीप्रथा से जोड़ना तो और भी हास्यास्पद है क्योंकि सतीप्रथा (जो क़ानूनी रूप से प्रतिबंधित है) एक कुप्रथा थी जबकि सल्लेखना एक व्रत है. सल्लेखना जन्म-मरण से ऊपर उठने के लिए की जाती है जबकि सतीप्रथा में स्त्री को पति की मृत देह को अपनी गोद में लेकर चिता पर जलना पड़ता है. इसके पीछे एक ही धारणा है उस स्त्री को अगले जन्म में वही व्यक्ति पति के रूप में प्राप्त हो. इस प्रकार पति के राग और वासना की चाह में अपने जीवन की आहुति देना जैनधर्म में सर्वथा अस्वीकृत है इसलिए सतीप्रथा को सल्लेखना से जोड़ना सर्वथा अनुचित है.
जैन समाज इतना उद्वेलित क्यों :
जिसके प्राणों पर संकट आ जाएँ, वह उद्वेलित नहीं होगा तो क्या होगा? जिस सल्लेखना के कारण हमारी साधना सफल होती है जिसको धारण करने की भावना हर जैन साधक जीवनभर रखता है यदि उसपर ही प्रतिबन्ध की बात आ जाए तो समाज उद्वेलित होगा ही.
वस्तुतः सल्लेखना पर रोक हमारे धर्म पर रोक है. हमारी साधना पर रोक है. यह जैनधर्म और संस्कृति पर कुठाराघात है. जैन समाज का उद्वेलित होना स्वाभाविक है जिसे इस प्रतिबन्ध को हटाकर ही शांत किया जा सकता है .
अंत में, मैं शासन-प्रशासन, विधिवेत्ताओं एवं न्यायविदों से यही कहना चाहूँगा किसी भी धर्म से संबंधित किसी भी साधना पद्धति अथवा परम्परा से सम्बद्ध कोई भी निर्णय उसकी मूल भावना को समझकर ही लिया जाए. अनादिकाल से चली आ रही सल्लेखना की पुरातन परंपरा को यथावत रखा जाए.